काशी में ही तैलङ्ग स्वामी की भेंट योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी से हुई। स्वामी भास्करानन्द भी तैलङ्ग स्वामी के समकालीन तथा उच्चकोटि के साधक थे। स्वामी विद्यानन्द जी तैलङ्ग स्वामी को सचल शिव कहा करते थे। बंगाल के महासन्त अन्नदा ठाकुर भी तैलङ्ग स्वामी के समान थे। तैलङ्ग स्वामी ने अपने काशीनिवास के समय ही सोनारपुरा में रहने वाले श्री रामकमल चटर्जी के एकमात्र पुत्र के असाध्य रोग को दूर किया था।
सन् 1870 की एक घटना है एक बार तैलङ्ग स्वामी जी शिवाला की ओर जा रहे थे तो क्रीं कुण्ड पर बाबा कीनाराम से उनकी भेंट हो गयी। दोनों सन्त वहाँ शराब पीने लगे बाबा कीनाराम जी ने तैलङ्ग स्वामी जी को खूब शराब पिलायी। जब तैलङ्ग स्वामी जाने लगे तो बाबा कीनाराम ने उनके पीछे अपने एक शिष्य को लगाया ताकि यदि तैलङ्ग स्वामी जी कहीं लड़खड़ायें तो वह उन्हें सँभाल ले। शिष्य ने बाहर निकल कर देखा तो तैलङ्ग स्वामी जी का कहीं अता पता नहीं था। लोगों से पूछने पर पता चला कि तैलङ्ग स्वामी जी गंगाजी की ओर अस्सी घाट पर गये हैं। शिष्य ने घाट पर जाकर देखा तो तैलङ्ग स्वामी जी बीच धारा में पद्मासन लगा कर बैठे हुए हैं।
विजयकृष्ण गोस्वामी तैलङ्ग स्वामी के कृपापात्र एवं शिष्य जैसे थे। तैलङ्ग स्वामी जी के शिष्यों की संख्या 20 के आस-पास थी। अधिकतर शिष्य बंगाली थे। सबसे प्रमुख शिष्य थे-उमाचरण मुखोपाध्याय। तैलङ्ग स्वामी जी ने कड़ी परीक्षा के बाद उन्हें शिष्य बनाया था। तैलङ्ग स्वामी जी की कृपा से उमाचरण जी को काली का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने उन्हें अन्य बहुत सारे चमत्कार दिखाये थे।
समाधि लेने के पूर्व तैलङ्ग स्वामी जी ने शिष्यों को निर्देश दिया था कि ‘मेरे नाप का एक बाक्स बनवा लेना ताकि मैं उसमें लेट सकूँ। बाक्स में मुझे लिटा कर उसे स्क्रू से कस देना और ताला लगा देना। पञ्चगंगाघाट के किनारे अमुक स्थान में मुझे गिरा देना।
उनके निर्देशानुसार पौष शुक्ल 11 सन् 1887 में उन्हें जलसमाधि दे दी गयी।
उनके मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं –
मनुष्य को चाहिये कि वह सन्तोष, जिह्वा पर संयम, अनालस्य, सर्वधर्म का आदर, दरिद्र को दान, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन और उनके अनुसार अनुष्ठान करे।
अहिंसा, आत्मचिन्तन, अनभिमान, ममता का अभाव, मधुर भाषण, आत्मसंयम, उचित गुरु का चयन, उनके उपदेश का पालन और वाक् संयम मनुष्य को आध्यात्मिक उत्कर्ष पर ले जाते हैं।