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चक्रपुष्करिणी यानि मणिकर्णिका तीर्थ की महिमा जानें।

चक्रपुष्करिणी यानि मणिकर्णिका तीर्थ की महिमा जानें।

*काशीमाहात्म्य का काशीखण्ड कहता है कि महर्षि अगस्त जी कहा हे भगवन् ! स्कन्द !जो बात बहुत दिनों से मेरे हृदय में अवस्थित है,उसे कहिये*,किस काल से यह अविमुक्तक्षेत्र पृथिवी पर परम प्रसिद्ध हुआ ? और किस प्रकार से यह मोक्षप्रद हुआ ? *किस कारण त्रिलोक्य भर के पूज्य इस (पुष्करिणी ) मणिकर्णिका तीर्थ का नाम मणिकर्णिका पड़ा ? और वहां पर जब #गंगा नहीं थी तो क्या था?* इस अविमुक्तक्षेत्र का वाराणसी, काशी, रुद्रावास आनन्दकानन आदि नाम कैसे पड़ा ? यह क्षेत्र महाश्मशान क्यों कहा जाता है? और इस नाम से क्यों प्रसिद्ध हुआ है? में यह सब सुनना चाहता हूँ, *तब कार्तिक जी बोले- हे कुम्भयोने । तुमने यह जो अतुलनीय प्रश्न कहे हैं, इसी विषय को अम्बिका ने भी महादेव से पूछा था।जिस रीति से जगन्माता पार्वती से देवदेव सर्वज्ञ भगवान् ने इस क्षेत्र का कीर्तन किया था, वह सब में तुमसे कहता हूँ श्रवण करो–3 उसी क्रम में महादेव का वाक्य जानकर, कमलनेत्रों को खोल उठ खड़े हो कर श्रोविष्णु बोले-*

*हे देवेश ! देवदेव । महेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो यही वर दीजिये कि भवानी के सहित आप को सर्वदा देख सकूं । हे चन्द्रशेखर ! सब स्थान पर समस्त कर्मों में आप को ही आगे भ्रमण करता हुआ देखू और मेरा चित्तरूपी भ्रमर आपके चरणकमल- मकरन्दमधु- पान में समुत्सुक होकर, भ्रान्ति को छोड़ स्थिर हो बैठे–*

यदि प्रसन्नो देवेश देवदेव महेश्वर ।
भवान्या सहितं त्वां तु द्रष्टुमिच्छामि सर्वदा ।। ५८
सर्वकर्मसु सर्वत्र त्वामेव शशिशेखर ।
पुरश्चरं तं पश्यामि यथा तन्मे वरस्तथा ।। ५९
त्वदीय चरणांभोज मकरंदमधूत्सुकः ।।
मच्चेतो भ्रमरो भ्रांतिं विहायास्तु सुनिश्चलः।।६०

*श्रीशिव ने कहा-हे ऋषीकेश ! जनार्दन ! जो तुमने कहा, वैसा ही होवे । और भी दूसरा वर तुमको देता है। हे सुव्रत ! उसे श्रवण करो , जो मैंने तुम्हारी तपस्या की अतिशय वृद्धि को देख सर्परूप कर्णभूषणयुक्त मस्तक को क‌ंपाया उसी आन्दोलन के कारण मेरे कान से मणिकर्णिका गिर पड़ी अतएव इस तोर्थ का नाम मणिकर्णिका हो । हे शंखचक्रगदाधर ! पूर्वकाल में तुम्हारे चक-सुदर्शन के द्वारा खोदे जाने से इस पवित्र तीर्थ का नाम चक्रपुष्करिणी पड़ा था । अब जब से मेरे कान से यह मणिकर्णिका रत्नकुण्डल गिरी है, अतएव आज से यहाँ पर लोक में मणिकर्णिका नाम प्रसिद्ध होगा–*

एवमस्तु हृषीकेश यत्त्वयोक्तं जनार्दन ।
अन्यं वरं प्रयच्छामि तमाकर्णय सुव्रत ।। ६१
त्वदीयस्यास्य तपसो महोपचय दर्शनात् ।
यन्मयांदोलितो मौलिरहिश्रवणभूषणः ।। ६२
तदांदोलनतः कर्णात्पपात मणिकर्णिका।
मणिभिः खचिता रम्या ततोऽस्तु मणिकर्णिका।। ६३
चक्रपुष्करिणी तीर्थं पुराख्यातमिदं शुभम् ।
त्वया चक्रेण खननाच्छंखचक्रगदाधर ।। ६४
मम कर्णात्पपातेयं यदा च मणिकर्णिका ।
तदाप्रभृति लोकेऽत्र ख्यातास्तु मणिकर्णिका ।।६५

*श्रीविष्णु बोले-‘गिरिजावल्लभ ! आपके मुक्तामय मोती के कुण्डल के गिर जाने से तीर्थों में श्रेष्ठ यह तीर्थ इस लोक में मुक्तिक्षेत्र हो । आगे श्रीविष्णु बोले-‘गिरिजावल्लभ ! आपके मुक्तामय मोती के कुण्डल के गिर जाने से तीर्थों में श्रेष्ठ यह तीर्थ इस लोक में मुक्तिक्षेत्र हो और हे विभों ! इस स्थान में अकथनीय उस परज्योति के प्रकाश पाने से इस तीर्थ का और एक नाम काशी’ पड़े । हे जगत् के रक्षक प्रवर ! शिव ! में और भी एक वर की प्रार्थना करता हूँ, उसे आप परोपकारार्थ बिना विचारे ही वितरण कर दीजिये ,सृष्टि के जरायुजादि चारों प्रकार के भूतग्रामों में आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त समस्त जो कुछ जन्तुसंज्ञक है, वह सब काशी में मुक्तिलाभ करें–*

मुक्ताकुंडलपातेन तवाद्रितनयाप्रिय ।
तीर्थानां परमं तीर्थं मुक्तिक्षेत्रमिहास्तु वै ।।६६
काशतेऽत्र यतो ज्योतिस्तदनाख्येयमीश्वरः ।
अतो नामापरं चास्तु काशीति प्रथितं विभो ।। ६७
अन्यं वरं वरे देव देयः सोप्यविचारितम् ।
स ते परोपकारार्थं जगद्रक्षामणे शिव ।। ६८
आब्रह्मस्तंबपर्यंतं यत्किंचिज्जंतुसंज्ञितम् ।
चतुर्षु भूतग्रामेषु काश्यां तन्मुक्तिमाप्स्यतु ।।६९

*हे शम्भो । जो महाप्राज्ञ आयु को क्षणविनाशी, विपत्ति को विपुल और सम्पत्ति को क्षणभंगुर विचार कर इस तीर्थश्रेष्ठ मणिकर्णिका पर स्नान, सन्ध्या, जप, होम, उत्तम वेदपाठ, तर्पण, पिण्डदान, देवों का पूजन तथा गो, भूमि, तिल, सुवर्ण, अन्न (घोड़ा), अक्ष, वस्त्र, भूषण, कन्यादानादिक एवं अनेक अग्निष्टोम प्रभृति यज्ञ व्रतोद्यापन वृषोत्सर्ग और शिवलिंग वा प्रतिमा आदि की स्थापना करे, इस कर्म का फल उसे एकमात्र अक्षय मोक्ष होवे–*

अस्मिंस्तीर्थवरे शंभो मणिश्रव णभूषणे।
संध्यां स्नानं जपं होमं वेदाध्ययनमुत्तमम् ।।
तर्पण पिंडदानं च देवतानां च पूजनम् ।। ७०
गोभूतिलहिरण्याश्वदीपान्नांबरभूषणम् ।
कन्यादानं प्रयत्नेन सप्ततंतूननेकशः ।। ७१
व्रतोत्सर्गं वृषोत्सर्गं लिंगादि स्थापनं तथा ।
करोति यो महाप्राज्ञो ज्ञात्वायुःक्षणगत्वरम्।। ७२
विपत्तिं विपुलां चापि संपत्तिमतिभंगुराम् ।
अक्षया मुक्तिरेकास्तु विपाकस्तस्य कर्मणः ।।७३

*हे ईशान ! आत्मघत और प्रायोपवेशन निरशनव्रत को छोड़कर यहाँ पर अन्य जो कुछ शुभकर्म श्रद्धापूर्वक किया जावे । हे जगदीश्वर ! यह सब मुक्तिलक्ष्मी का हेतु होवे। जिस कर्म को कर कालान्तर में भी पश्चात्ताप नहीं करना पड़े,उसे न किसी से स्थापन करे ।हे ईश!आपके अनुग्रह से वह अक्षयता को प्राप्त होवे। हे ईश ! उसके सब कर्म जाप ही के प्रसाद से अक्षय हो जायें–*

अन्यच्चापि शुभं कर्म यदत्र श्रद्धयायुतम् ।
विनात्मघातमीशान त्यक्त्वा प्रायोपवेशनम्।।७४
नैःश्रेयस्याः श्रियो हेतुस्तदस्तु जगदीश्वर।
नानुशोचति नाख्याति कृत्वा कालांतरेपि यत् ।।७५
तदिहाक्षयतामेतु तस्येश त्वदनुग्रहात्।
तव प्रसादात्तस्येश सर्वमक्षयमस्तु तत् ।।७६

साभार.✍🏻. अजय शर्मा काशी*

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