काशी महात्म्य का काशीखण्ड कहता है, महर्षि अगस्त जी ने कहा हे भगवन् ! स्कन्द ! जो बात बहुत दिनों से मेरे हृदय में अवस्थित है, उसे कहिये, किस काल से यह अविमुक्तक्षेत्र पृथिवी पर परम प्रसिद्ध हुआ ? और किस प्रकार से यह मोक्षप्रद हुआ ? किस कारण त्रिलोक्य भर के पूज्य इस मणिकर्णिका तीर्थ का नाम मणिकर्णिका पड़ा ? और हे स्वामिन् ! वहां पर जब गंगा नहीं थी तो क्या था ? इस अविमुक्तक्षेत्र का वाराणसी, काशी, रुद्रावास आनन्दकानन आदि नाम कैसे पड़ा ? यह क्षेत्र महाश्मशान क्यों कहा जाता है? और इस नाम से क्यों प्रसिद्ध हुआ है? में यह सब सुनना चाहता हूँ, तब कार्तिक जी बोले-हे कुम्भयोने । तुमने यह जो अतुलनीय प्रश्न कहे हैं, इसी विषय को अम्बिका ने भी महादेव से पूछा था।जिस रीति से जगन्माता पार्वती से देवदेव सर्वज्ञ भगवान् ने इस क्षेत्र का कीर्तन किया था, वह सब में तुमसे कहता हूँ श्रवण करो—
महाप्रलय के समय जब कि स्यावर, जंगम, सभी नष्ट हो गये थे, तब सूर्य, ग्रह, तारागण से शून्य सब विश्व तमोमय या चन्द्रविहीन, अहोरात्र से रहित, अग्नि, वायु, भूतल विवजित, दूसरे तेजों से होन, अप्रधान रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, यही सब थे।पूर्व-पश्चिम इत्यादि दिग्-विभाग भी तब नहीं था–
महाप्रलयकाले च नष्टे स्थावरजङ्गमे ।
आसीत्तमोमयं सर्वमनर्कग्रहतारकम्।।८
अचन्द्रमनहोरात्र मनग्भ्यनिल भूतलम् 1
अप्रधानं वियच्छून्यमन्यतेजो विधितम्।। ९
द्रष्टुत्वादिविहोने व शब्दस्पर्शसमुज्झितम् ।
व्यपेतगम्धरूपं च रसत्यक्तमदिङ्मुखम् ।। १०
इस प्रकार से सूची भेदन मात्र अवकाश से रहित (केवल ब्रह्मविद्या द्वारा भेदनीय आवरणात्मक) घोर अन्धकारमय हो जाने पर “तत् सत् ब्रह्म” इस वेद वाक्य से अद्वितीय एक ही जो प्रतिपादित होता है तथा वह मन का गोचर नहीं, वाणी का विषय नहीं, नाम, रूप, वर्ण से रहित, यह स्थूल (मोटा) भी नहीं, कुश भी (दुबला-पतला) नही और ह्लस्व (छोटा) नहीं, दीर्घ (बड़ा) नहीं, लघु और गुरु (हलका-भारी) भी नहीं है । जिसकी न कभी वृद्धि ही होती है, न क्षय ही होता है और वेद भी जिसे चकित होकर “अस्ति” (है) इतना भर ही बारम्बार कहता है, जो सत्य, ज्ञान, अनन्त, आनन्द एवं परंज्योति है–
इत्यं सत्यन्धतमसि सूचीभेद्ये निरन्तरे ।
तत् सब्रह्मेति यच्छ्रुत्या सदैकं प्रतिपाद्यते ।। ११
अमनोगोचरो वाचां विषयं न कथश्वन ।
अनामरूपवर्ण च न स्थूलं न च यत्कृशम् ।। १२
अह्रस्वदीर्घमलघुगुरुत्वपरिर्वाजतम् ।
न यत्रोपचयः कश्चित्तथा चापचयोऽपि च॥ १३
अभिधत्ते सचकित यदस्तीति श्रुतिः पुनः ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं च यदानन्दं परं महः ।। १४
जो अप्रमेय, अनाधार, अविकार, आकृतिरहित, निर्गुण, योगिजनप्राप्य, सर्व-व्यापक , एक कारणरूप है और जो विकल्परहित, आरम्भहीन, मायाशुन्य और उपद्रवविवर्जित है, इन सब प्रकार की संज्ञायें जिस संज्ञाविहीन ब्रह्म को विकल्पित की जाती हैं उसी एक चर अद्वैतब्रह्म को द्वितीय द्वैत की इच्छा हुई। (तब) उस निराकार ने निज लीला के द्वारा अपनी कल्पना को साकार कर दिया तब सम्पूर्ण ऐश्वयों से युक्त, समस्त ज्ञान से पूर्ण, शुभरूपा, सर्वगामिनी, सर्व-स्वरूपा, सर्वदृष्ठि, सर्वकरिणी सबको एकमात्र वन्दनीया, सब की आदिरूपा, सर्वदात्री, सर्वचेष्टास्वरूपा, शुद्धरूपिणी ईश्वरी मूति की कल्पना कर वह सर्वव्यापक, अव्यय परंब्रह्म, अन्तर्धान हो गया–
अप्रमेयमनाधारमविकारमनाकृति ।
निर्गुणं योगिगम्यं च सर्वव्याप्येककारणम् ।। १५
निविकल्पं निरारम्भं निर्मायं निरुपद्रवम् ।
यस्पेत्यं संविकल्प्यन्ते संज्ञाः संज्ञोदितस्य वे ।। १६
तम्येकलस्य चरतो द्वितीयेच्छाऽभवत्किल ।
अमूर्तेन स्वमूतिश्च तेनाकल्पि स्वलीलया ।। १७
सर्वेश्वर्य गुणोपेता सर्वज्ञानमयी शुभा ।
सर्वगा सर्वरूपा च सर्वदृक् सर्वकारिणी ।। १८
सर्वेकवन्द्या सर्वाद्या सर्वदा सर्वसंकृतिः ।
परिकल्प्येति तां मूतिमीश्वरी शुद्धरूपिणीम् ।। १६
अन्तर्दधे’ पराख्यं यद् ब्रह्म सर्वगमव्ययम् ।। २०
है प्रिये। उसी निराकार परब्रह्म की साकारमूर्ति मैं हूँ, और मुझी को आधुनिक एवं प्राचीन बुधगण ईश्वर कहते है , अनन्तर अकेले मैंने स्वच्छन्द विहरण करते हुए निजमूर्ति से स्वशरीर की अव्यभिचारिणी मृति का स्वयं सर्जन किया और प्रधान, प्रकृति, गुणमयी, बुद्धिवत्त्व की जननी, विकारविवजित उत्कृष्ट माया-रूपा वहीं मूति, तुम हो, शत्तिरूपिणी तुम्हारे सहित कालस्वरूपी आदिम पुरुष मैंने एक साथ युगपत् इस क्षेत्र का निर्माण किया है–
अमूर्त यत्पराख्यं वै तस्य मूतिरहं प्रिये ।
अर्वाचीनपराचीना ईश्वर यां जगुर्बुधाः ।। २१
ततस्तदेकलेनापि स्वैरं विहरता मया ।
स्वविग्रहात्स्वयं सृष्टा स्वशरीरानपायिनी॥ २२
प्रधानं प्रकृति त्वां च मायां गुणवतों पराम् ।
बुद्धितत्त्वस्य जननीमाहुविकृतिर्वाजताम्॥ २३
युगपच्च त्वया शक्त्या सा कङ्कालस्वरूपिणा ।
मयाऽद्य पुरुषेणैतत्क्षेत्रं चापि विनिमितम्।। २४
स्कन्द बोले-हे घटोद्भव ! वही शक्ति, प्रकृति कही जाती है, और वही परमेश्वर पुरुष है। स्वचरणतलविनिमित परमानन्दरूप पंचक्रोश परिमाण यह क्षेत्र, हे मुने ! विहरणपरायण, परम आनन्दमय उन महादेव-पार्वती के द्वारा प्रलयकाल में भी कभी विमुक्त न होने से अविमुक्ता कहा जाता है और जब कि न तो भूमिवलय था, न जल की ही उत्पत्ति हुई थी, तभी ईश्वर ने विहार करने के निमित्त इस क्षेत्र को बनाया था–
सा शक्तिः प्रकृतिः प्रोक्ता स पुमानीश्वरः परः ।
ताभ्यां च रममाणाभ्यां तस्मिन्क्षेत्रे घटोद्भव ।। २५
परमानन्दरूपाभ्यां परमानन्दरूपिणि।
पंचक्रोशपरीमाणे स्वपादतलनिमिते।। २६
मुने प्रलयकालेऽपि न तत्क्षेत्रं कदाचन ।
विमुक्तं हि शिवाभ्यां यदविमुक्तं तत्तो विदुः ।। २७
न यदा भूमिवलयं न यदाऽपां समुद्भवः ।
तदा विहर्तुमीशेन क्षेत्रमेतद्विनिमितम् ।। २८
हे कुम्भज ! क्षेत्र के इस रहस्य को कोई भी नहीं जानता । चर्मवृष्टि नास्तिक से कभी इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। श्रद्धालु, विनर, त्रिकालज्ञानदर्शी, शिवभक, शान्तस्वभाव, मुमुक्षु जन से ही कहना उचित है तभी से यह क्षेत्र अविमुक्त नाम से कहा जाता है, यह शिवाशिव का पर्यशंकररूप निरन्तर मुखास्पद है तथा मूढ़लोग जब शिव और पार्वती के भी अभाव की कल्पना कर लेगी हैं, तब मुक्तिप्रद इस क्षेत्र का भी अभाव मान लेवें–
इदं रहस्यं क्षेत्रस्य वेद कोऽपि न कुम्भज ।
नास्तिकाय न वक्तव्यं कदाचिच्चर्मचक्षुषे ।। २६
श्रद्धालवे विनीताय त्रिकालज्ञानचक्षुषे ।
शिवभक्ताय शान्ताय वक्तव्यं च मुमुक्षवे ।। ३०
अविमुक्तं तदारभ्य क्षेत्रमेतदुदीर्यते ।
पर्यङ्कभूतं शिवयोनिरन्तर सुखास्पदम् ।। ३१
अभावः कल्प्यते मूढर्यदा च शिवयोस्तयोः ।
क्षेत्रस्याऽस्य तदाभावः कल्प्यो निर्वाणकारिणः ।। ३२
परन्तु योगादिक उपाय के विज्ञ भी चाहें कि पिता महेश्वर की आराधना और काशी लाभ किये ही मोक्ष पायें, तो यह कदापि नहीं हो सकता ,यह क्षेत्र मोक्षस्वरूय आनन्द का कारण है, इसीलिये पूर्वकाल में पिनाको ने इसका नाम आनन्दकानन रखता था, बाद इसका नाम अविमुक्त पड़ा उस आनन्दयन में जहाँ वहाँ समस्त लिगों को ही आनन्दकन्द बीजों के अंकुर का रूम समझना चाहिये । हे अगस्त मुने!इस प्रकार से यह क्षेत्र अविमुक्त और आनन्दकानन नाम से प्रसिद्ध हुआ–