स्वर्लिनेश्वर (ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठा के लिए काशी लाये गये शिवलिङ्ग को श्रीविष्णु द्वारा ब्रह्मा से छीन पुनः स्थापित कर भगवान रूद्र के प्रति अपनी परमाभक्ति को प्रदर्शित करना एवं उस लिंग का काशी में ब्रह्मा के हिरण्यगर्भ नाम से विख्यात हो ४२ महालिंगों में सुप्रतिष्ठित होना। लिंग प्रतिष्ठा स्वयं न कर पाने से असंतुष्ट भगवान रूद्र की परमभक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा ने पुनः जिस शुभ लिंग की विधिवत स्थापना की वह काशी में स्वर्लिनेश्वर के नाम से जाना जाता है..)
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ३३
स्वयं लीनो महेशोत्र भक्तकामसमृद्धये । तस्मात्स्वर्लीनसंज्ञास्य देवदेवस्य शूलिनः ॥२३॥
यहाँ भक्तों के मनोरथ सिद्धि के लिये भगवान् महेश स्वयं इस लिंग में विलीन हो गये थे। इसलिए त्रिशूल धारण करने वाले देवों के देव भगवान शिव का स्वर्लीन नाम हुआ।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ८४
ततः सांख्याख्य तीर्थं च सांख्येश्वर समीपतः । तत्तीर्थसेवनात्पुंसां सांख्ययोगः प्रसीदति ॥३०॥
स्वर्लोकाद्यत्र संलीनः स्वयं देव उमापतिः । अतः स्वर्लीनतीर्थं च स्वर्लीनेश्वर सन्निधौ ॥३१॥
तत्र स्नानेन दानेन श्रद्धया द्विजभोजनैः । जपहोमार्चनैः पुंसामक्षयं सर्वमेव हि ॥३२॥
सांख्य तीर्थ पर सांख्येश्वर लिङ्ग है। वहां स्नान करने वाला सांख्ययोग प्राप्त करता है। इसंके दक्षिण में स्वर्लीन तीर्थ विराजित है। वहां स्वर्लीनेश्वर महादेव हैं। स्वर्लोक त्याग करके यहां गिरिजापति निवास करते हैं। तभी यह स्वर्लीन कहा गया है। यहां स्नान-दान-सश्रद्ध भावेन ब्राह्मण भोजन कराने से अक्षय फललाभ होता है।
महिषासुरतीर्थं च तत्समीपेति पावनम् । यत्र तप्त्वा स दैत्येंद्रो विजिग्ये सकलान्सुरान् ॥३३॥
तत्तीर्थसेवकोद्यापि नारिभिः परिभूयते । न पातकैर्महद्भिश्च प्रार्थितं च फलं लभेत् ॥३४॥
बाणतीर्थं च तस्यारात्तत्सहस्रभुजप्रदम् । तत्र स्नातो नरो भक्तिं प्राप्नुयाच्छांभवीं स्थिराम् ॥३५॥
स्वर्लीन तीर्थ के पास ही महिषासुरतीर्थ है, जहां तप करके महिषासुर ने देवगण को परास्त किया था। अब भी वहां के तीर्थसेवकगण शत्रु से पराजित नहीं होते। पाप का उनको भय नहीं होता तथा वे महासिद्धि सम्पन्न हो जाते हैं। वहीं पर निकट में बाणतीर्थ है जहां बाणासुर को एक हजार भुजाओं की उत्पत्ति हो गयी थी। यहां स्नान करने से महादेव के प्रति स्थिर भक्ति की प्राप्ति होती है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ६९
विश्वस्थानादिहायातं लिंगं वै विमलेश्वरम् । स्वर्लीनात्पश्चिमे भागे दृष्टं विमलसिद्धिदम् ॥२४॥
विमलेश्वर लिंग पवित्र स्थान विश्वस्थान से यहाँ आये हैं। यह स्वर्लीन के पश्चिमी भाग में स्थित है। इनके दर्शन मात्र से विमलासिद्धि की प्राप्ति होती है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ९७
प्रह्लादेश्वरमभ्यर्च्य तत्पश्चाद्भक्तिवर्धनम् । स्वयंलीनः शिवो यत्र भक्तानुग्रहकाम्यया ॥३५॥
अतः स्वलीनं तत्पूर्वे लिंगं पूज्यं प्रयत्नतः । सदैव ज्ञाननिष्ठानां परमानंदमिच्छताम् ॥३६॥
या गतिर्विहिता तेषां स्वलीने सा तनुत्यजाम् । वैरोचनेश्वरं लिंगं स्वलीनात्पुरतः स्थितम् ॥३७॥
तदुत्तरे बलीशं च महाबलविवर्धनम् । तत्रैव लिंगं बाणेशं पूजितं सर्वकामदम् ॥३८॥
इसके बाद, व्यक्ति को प्रह्लादेश्वर की पूजा करनी चाहिए जो भक्ति उत्साह को बढ़ाती है। उनके पूर्व दिशा में स्वर्लीनेश्वर की प्रयत्न पूर्वक पूजा करनी चाहिए। अपने भक्तों को आशीर्वाद देने की इच्छा से शिव स्वयं उनमें विलीन हो गये हैं। जो लोग स्वर्लीनेश्वर में अपने शरीर का त्याग करते हैं उनका लक्ष्य वही है जो उन लोगों का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। जो सबसे बड़े आनंद की इच्छा रखते हैं और जो हमेशा आध्यात्मिक ज्ञान का पालन करते हैं। वैरोचनेश्वर लिंग स्वर्लीनेश्वर के सामने स्थित है। इसके उत्तर में बलिश्वर है। जो महान शक्ति का कारण बनता है। बाणेश्वर लिंग (जो वहीं है) की पूजा करने से सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं।
पद्मपुराण (स्वर्गखण्ड) – अध्यायः ३७
तत्र लिंगं पुराणीयं स्थातुं ब्रह्मा यथागतः । तदानीं स्थापयामास विष्णुस्तल्लिंगमैश्वरम् ॥१०॥
तत्र स्नात्वा समागम्य ब्रह्मा प्रोवाच तं हरिम् । मयानीतमिदं लिंगं कस्मात्स्थापितवानसि ॥११॥
तमाह विष्णुस्त्वत्तोऽपि रुद्रे भक्तिर्दृढा मम । तस्मात्प्रतिष्ठितं लिगं नाम्ना तव भविष्यति ॥१२॥
जब ब्रह्माजी, पूर्व में लिङ्ग की स्थापना करने के लिए काशी को आये थे, जब वे स्थापना से पूर्व स्नान को गये तो विष्णुजी ने भगवान (शिव) के उस लिंग की स्थापना (ब्रह्माजी से पूर्व ही) कर दिया था। वहां स्नान करके विष्णुजी के समीप आकर ब्रह्माजी ने कहा: “मैं यह लिंग लाया था, आपने इसे क्यों स्थापित किया?” विष्णु ने ब्रह्मा से कहा: “रुद्र के प्रति मेरी भक्ति आपकी अपेक्षा अधिक प्रबल है। इसलिए मैंने आपसे पूर्व ही इस लिंग को स्थापित कर दिया है। इसका नाम आपके (ब्रह्मा के) नाम पर ही रखा जाएगा।”
ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठा के लिए काशी लाये गये शिवलिङ्ग को श्रीविष्णु द्वारा ब्रह्मा से छीन पुनः स्थापित कर भगवान रूद्र के प्रति अपनी परमाभक्ति को प्रदर्शित करना एवं उस लिंग का काशी में ब्रह्मा के हिरण्यगर्भ नाम से विख्यात हो ४२ महालिंगों में सुप्रतिष्ठित होना। लिंग प्रतिष्ठा स्वयं न कर पाने से असंतुष्ट भगवान रूद्र की परमभक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा ने पुनः जिस शुभ लिंग की विधिवत स्थापना की वह काशी में स्वर्लिनेश्वर के नाम से जाना जाता है…निचे श्लोकों को देखें…
लिङ्गपुराणम् / पूर्वभागः /अध्यायः ९२
॥ श्रीभगवानुवाच॥
ब्रह्मणा चापि संगृह्य विष्णुना स्थापितः पुनः। ब्रह्मणापि ततो विष्णुः प्रोक्तः संविग्नचेतसा ॥७३॥
मयानीतमिदं लिंगंकस्मात्स्थापितवानसि। तमुवाच पुनर्विष्णुर्ब्रह्मणं कुपिताननम् ॥७४॥
रुद्रे देवे ममात्यंतं परा भक्तिर्महत्तरा। मयैव स्थापितं लिंगंतव नाम्ना भविष्यति ॥७५॥
हिरण्यगर्भ इत्येवं ततोत्राहं समास्थितः। दृष्ट्वैनमपि देवेशं मम लोकं व्रजेन्नरः ॥७६॥
श्रीभगवान (शिव) ने कहा : मुझे (लिङ्ग रूप में) विष्णु ने ब्रह्मा से छीन कर पुनः स्थापित किया था। तब ब्रह्मा ने निराश मन से विष्णु को संबोधित किया “मेरे द्वारा लाये गये लिङ्ग को आपने कहां स्थापित किया है?” ब्रह्मा के मुखमण्डल पर क्रोध स्पष्ट था तब विष्णु ने ब्रह्मा से कहा : “भगवान रूद्र के प्रति मेरी परमभक्ति है। यद्यपि इस लिंग की स्थापना मेरे (विष्णु) द्वारा की गई है, किन्तु यह आपके (ब्रह्मा का एक नाम : हिरण्यगर्भ) नाम से ही जाना जाएगा।” अत: हिरण्यगर्भेश्वर नाम से इस स्थान पर मैं (शिव) अवस्थित हूँ। जो मनुष्य इन देवाधिदेव हिरण्यगर्भेश्वर का दर्शन करता है, उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।
ततः पुनरपि ब्रह्मा मम लिंगमिदं शुभम्। स्थापयामास विधिवद्भक्त्या परमया युतः ॥७७॥
स्वर्लीनेश्वर इत्येवमत्राहं स्वयमागतः। प्राणानिहनरस्त्यक्त्वा न पुनर्जायते क्वचित् ॥७८॥
लिंग प्रतिष्ठा स्वयं न कर पाने से असंतुष्ट भगवान रूद्र की परमभक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा ने एक बार पुनः मेरे इस शुभ लिंग की विधिवत स्थापना की। मुझे यहां स्वर्लिनेश्वर के नाम से जाना जाता है। मैं (महादेव) स्वेच्छा से यहां आया हूं, और इस लिंग में विलीन हूँ । जो मनुष्य यहां प्राण त्यागता है उसका पुनर्जन्म कहीं नहीं होता।
साभार : श्री सुधांशु कुमार पांडेय – कामाख्या, काशी