ॐ श्री परमात्माने नमः
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काल भैरव का स्वरूप :-
शिवमहापुराण के अनुसार काल भैरव का स्वरुप इस प्रकार वर्णित है। भगवान काल भैरव कापालिक वेश वाले, सर्पका कुण्डल धारण किए, कमलदल के सामान त्रिनेत्र महाकाल, पूर्णाकार, शशिभूषण, हाथ में त्रिशूल, कंठ में पूर्व में उत्पन्न हुए ब्रह्मा की अस्थियों की माला व ब्रम्हा जी का कटा हुआ पंचम शीश भी धारण किये हुए हैं।
उन्हें मृत्यु को टालने वाला भी कहा जाता है। उनकी तीसरी आँख महानतम बुद्धिमता का प्रतिनिधित्व करती है। शिव पुराण में भैरव रूप का वर्णन उपलब्ध है। काल भैरव भगवान शिव का स्वरूप हैं जो कि नकारात्मक ऊर्जा के विनाश व श्रद्धालुओं के संरक्षण हेतु सदैव तत्पर हैं।
काल भैरव से संबन्धित कथा का उपाख्यान:-
भगवान शिव के आठ अवतारों में से एक, काल भैरव के संबंध में अनेकों रोचक कथाएँ उपलब्ध हैं। भैरव के अवतरित होने से संबन्धित एक कथा काशीखण्ड में इस प्रकार वर्णित है:-
एकदा ऋषि अगस्त्य ने स्कन्द जी से प्रश्न किया कि इस काशी नगरी में यह भैरव नाम से कौन अवस्थित हैं? उनका रूप कैसा है एवं उनकी आराधना कैसे करें?
स्कन्द ने कहा, पूर्व काल में सुमेरु पर्वत के श्रृंग पर महर्षियों ने भगवान ब्रम्हा से पूछा कि महानतम और उच्चतम कौन है? भगवान ब्रम्हा ने स्वयं को नश्वर व सर्वशक्तिमान बताया। यह सुनकर यज्ञेश्वर (जो नारायण का प्रतिरूप हैं) ने भगवान ब्रम्हा को उनके इस त्वरित और दुस्साहसपूर्ण संभाषण के लिए चेतावनी दी और कहा “आप परमतत्व को बिना जाने ही यह क्या कहने लगे? आपके जैसे योगी का इस तरह अज्ञानतापूर्ण वार्ता करना उचित नही है। मैं समस्त लोकों का कर्ता परमशक्तिमान हूँ।
मोहवश परस्पर विजय की इच्छा से दोनों ने यही प्रश्न चारों वेदों से भी पूछा। ऋग्वेद ने उत्तर दिया “जिसके भीतर समस्त भूतगण अवस्थित हैं, जिससे यह सब प्रवर्तित होता है, जिसे पंडितगण “तत~” शब्द के द्वारा कहते हैं, वही एकमात्र रूद्र परमतत्व हैं।“
यजुर्वेद ने उत्तर दिया “ जो समस्त याग एवं योगों के द्वारा आराधित होते रहते हैं,और जिनके बल से हम लोग प्रमाणस्वरूप माने जाते हैं, वही समदर्शी शिव परम तत्व हैं।“
सामवेद ने उत्तर दिया “जो इस विश्व मण्डल को भ्रमण कराते रहते हैं, जिनहे योगिगण चिंतन करते रहते हैं, एवं जिनकी ज्योति से संसार प्रकाशमान~ रहता हैं, केवल वे ही त्र्यंबक परमतत्व हैं।“
अथर्ववेद ने उत्तर दिया “जिस देवाधिदेव को अनुग्रही जन भक्तिसाधन के द्वारा देख सकते हैं। वे ही दुखदूरकारक केवल्यस्वरूप, केवल शंकर ही परमतत्व कहे गए हैं।“ संक्षिप्त रूप में सभी चार वेदों ने घोषणा की कि भगवान शिव ही परम अस्तित्व हैं।
दोनों, ब्रम्हा व यज्ञ नारायण इस बात पर अविश्वास कर हँसे। तभी भगवान शिव दोनों के मध्य में एक शक्तिशाली आलौकिक प्रकाश के रूप में प्रकट हुए। भगवान ब्रम्हा ने अपने पांचवें सिर से उस आलौकिक ज्योति को क्रोधपूर्ण देखा। उसी क्षण भगवान शिव ने एक नए प्राणी की रचना की और कहा कि ये काल (यहाँ काल का अर्थ अंतिम समय अर्थात मृत्यु से है ) का सम्राट होगा तथा काल भैरव के नाम से जाना जाएगा। भगवान शिव ने कहा कि काल भैरव सदा काशी में रहेंगे एवं श्रद्धालुओं के सम्पूर्ण पापों का नाश करेगा और इसे पाप भक्षक के नाम से जाना जाएगा। भगवान शिव ने काल भैरव को आदेश दिया – “हे कालभैरव! तुम इस पंकजजन्मा (ब्रह्मा) का शासन करो।
काल भैरव ने भगवान ब्रम्हा जी का पाँचवाँ सिर, जो क्रोधाग्नि से जल रहा था उसे अपने बाएँ हाथ की अंगुलि के नखाग्रभाग से काट लिया। यज्ञमूर्तिधारी विष्णु समेत वहाँ उपस्थित लोगों ने तत्काल भगवान शिव का प्रशस्तिगान प्रारम्भ कर दिया। भगवान शिव ने भैरव से कहा कि “ हे नीललोहित! यह यज्ञपुरुष और ब्रह्मा (दोनों ही ) तुम्हारे माननीय हैं, तुम ब्रह्मा का यह कपाल धारण करो और ब्रह्महत्या को दूर करने का कापालिक व्रत ग्रहण कर विश्व के लिए एक उदाहरण स्थापित कर सर्वदा भिक्षा मांगते हुए भ्रमण करोगे। तुम कहीं भी जा सकते हो, परंतु ब्रम्ह हत्या दोष (ब्राह्मण को घायल करने का दोष) कभी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा। भगवान शिव ने एक भयावह व हिंसात्मक दिखने वाले स्त्री शरीर की रचना की, उसे ब्रम्ह हत्या नाम दिया और आदेश किया कि काल भैरव जहां भी जाये, उसके पीछे ही रहना है। पर तुम वाराणसी पुरी में नहीं जा सकोगी।
ब्रह्महत्या के सान्निध्य से काल भैरव काले पड़ गए, महादेव की आज्ञानुसार कापालिक व्रतधारण कर, ब्रम्हा जी का सिर हाथ में लेकर विश्व के अनेकों भागों में गए, अनेकों तीर्थों में स्नान करने और विभिन्न देवों की आराधना करने पर भी उस ब्रह्महत्या से उन्हे विमुक्ति नहीं मिली।
अंततः, काल भैरव मोक्ष पुरी काशी की यात्रा पर चले। जिस क्षण काल भैरव ने काशी में प्रवेश किया, ब्रम्ह हत्या ने चिल्लाना, रोना प्रारम्भ कर दिया और अंत में ब्रह्मांड में अदृश्य हो गई। ब्रम्हा का सिर (कपाल) एक स्थान पर गिरा और वह जगह कपालमोचन के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो बाद में कपाल मोचन तीर्थ के नाम से जाना गया। इसके पश्चात, काल भैरव ने काशी को स्थायी रूप से अपना निवास बना लिया, तथा अपने सभी श्रद्धालुओं को शरण देने लगे। जो काशी में रहते हैं अथवा दर्शन को जाते हैं, उनके लिए भैरव के दर्शन व उपासना अनिवार्य है , वे अपने सभी श्रद्धालुओं को संरक्षण देते हैं ।
काल भैरव की पूजा का श्रेष्ठ समय:-
मार्गशीर्ष मास की अष्टमी तिथि (पूर्णिमा के पश्चात आठवाँ दिवस) काल भैरव की उपासना के लिए महत्वपूर्ण दिन माना जाता है, जो भैरवाष्टमी के रूप में मनायी जाती है। मान्यतानुसार रविवार, मंगलवार के अतिरिक्त अष्टमी एवं चतुर्दशी काल भैरव की उपासना के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।
मंदिर प्रातः 5:30 से दोपहर 1:30 तक तथा इसके बाद साँय 4;30 से रात्रि 9.30 तक खुला रहता है। रविवार व मंगलवार को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है।
मन्दिर का स्थान :-
काल भैरव k-32/22, भैरोंनाथ में स्थित है। यह एक अति प्रसिद्ध मंदिर है तथा श्रद्धालुओं को स्थानीय निवासियों से पूरा मार्गदर्शन मिल सकता है।
अष्ट भैरव (आठ भैरव) भगवान काल भैरव के आठ स्वरूप हैं, जो कि भगवान शिव का एक रौद्र रूप है । जो सभी भैरवों के प्रमुख व काल के शासक माने जाते हैं। वे आठों दिशाओं की रक्षा एवं नियंत्रण करते हैं ।
अष्ट भैरव किसका प्रतिनिधित्व करते हैं :-
अष्ट भैरव में से पाँच भैरव, पंच तत्वों यथा आकाश, वायु, जल, अग्नि और भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं और अन्य तीन सूर्य, चंद्र व आत्मा का। आठों भैरवों का स्वरूप एक दूसरे से भिन्न है, उनके वाहन व शस्त्र भी भिन्न हैं तथा वे अपने श्रद्धालुओं को अष्ट लक्ष्मी के रूप में आठ प्रकार की संपदाएँ देते हें । भैरव की निरंतर प्रार्थना श्रद्धालु को एक महागुरु बनने का मार्ग प्रशस्त करती है । आठों भैरवों के अलग अलग मूल मंत्र व ध्यान श्लोक हैं ।
श्री भैरव भगवान की आराधना कैसे करें:-
सामान्यतः ये विश्वास किया जाता है कि भैरवों की उपासना करने से समृद्धि, सफलता, सुशील संतान, अकाल मृत्यु से बचाव तथा ऋण मुक्ति व उत्तरदायित्वों की कुशल निर्वहन क्षमता आदि की प्राप्ति होती है। भैरवों के विभिन्न स्वरूप भगवान शिव से विकसित हुए जो कि भैरव के रूप में अस्तित्व में आए। भैरव नाम स्वयं में एक गहरा अर्थ समेटे हुए है। इस नाम का प्रथम खंड अर्थात “भै” यानि भय अथवा दिव्य प्रकाश को इंगित करता है एवं इस नाम से साधक को धन की प्राप्ति होती है। “रव” का अर्थ “प्रतिध्वनि” है जिसमे “र” शब्द नकारात्मक परिणामों एवं प्रतिबंधों को दूर करने वाला है और “व” शब्द अवसरों को उत्पन्न करने का कार्य करता है। कुल मिलाकर, भैरव शब्द यह इंगित करता है कि यदि हम भय का प्रयोग करें तो हम ‘असीम आनंद’ को प्राप्त कर सकते हैं। भगवान शिव के मंदिरों में नियमित पूजा अर्चना सूर्योपासना से प्रारम्भ होकर भैरव वंदना के साथ समाप्त होती है। शुक्रवार की मध्यरात्रि भैरव पूजा के सर्वथा योग्य मानी जाती है।
भैरव की मूर्तियाँ अपना व्यक्तित्व कैसे व्यक्त करती हैं :-
भैरव सामान्यतः उत्तर या दक्षिण दिशा में स्थापित होते हैं। एक देवता के रूप में, भैरव सदैव चार भुजाओं के साथ खड़ी मुद्रा में प्रकट होते है अपने बाएं हाथों में डमरू और फंडा धारण करते हैं और अपने दाहिने हाथों पर त्रिशूल और मुंड धारण करते हैं।कभी कभी भैरव अधिक हाथों सहित प्रदर्शित किए जाते हैं। वह पूर्ण अथवा आंशिक नग्नवस्था में रहते हैं। उनका वाहन श्वान उनके साथ ही रहता है, जो कि मात्र एक वाहन ही नहीं अपितु भगवान भैरव के साथ उनकी भयावह गतिविधियों में उनका सहयोगी भी रहता है। भैरव अपने उभरे हुए दांतों की वजह से भयावह दिखते हैं। उनके गले में लाल फूलों की माला सुशोभित होती है।
साभार पावनपथ
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