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रामानंदाचार्य जी के इस शिष्य को मुस्लिम शासकों ने लालच दी.परन्तु

रामानंदाचार्य जी के इस शिष्य को मुस्लिम शासकों ने लालच दी.परन्तु

ॐ श्री परमात्माने नमः
मित्रों नमस्कार ! मैं संजय कुमार प्रजापति नमस्तेऽस्तु डॉट इन वेब पोर्टल पेज पर आप सभी दर्शकों का स्वागत करता हूँ।

मित्रों, यूं तो हिन्दू धर्म में बहुत से महान संत हुए हैं लेकिन रैदास जी महानतम थे. मैं उनको इसलिए महानतम कह रहा हूँ क्योंकि संत रैदास जी के जीविकापार्जन के साधन को तत्कालीन समाज में बहुत सम्मान की नजरों से नहीं देखा जाता था. तत्कालीन शासक जो मुसलमान थे उनकी तरफ से काफी लालच दिया गया लेकिन राम के अखंड व अटल भक्त रैदास जी बस इतना ही कहते रहे कि अब कैसे छूटे राम रट लागी?

मित्रों, संत रैदास जी उन रामानंद जी के शिष्य थे जिनके बारे में कहा जाता है कि भक्ति द्राविड़ उपजी लाए रामानंद. रामानंद जी ने बिना जातीय भेदभाव के काशी में अपने शिष्य बनाए. उनके शिष्यों में सुरसुरानंद ब्राह्मण, पीपा राजपूत, सेन नाई, धन्ना जाट, कबीर जुलाहा और रैदास (हरिजन) तक शामिल थे. रामानंद जी के शिष्यों के बारे में एक दोहा काफी लोकप्रिय है अनतानन्द, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पद्वावती, नरहरि, पीपा, भावानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि. कितने महान थे रामानंद जिन्होंने ईश्वरभक्ति के अनमोल खजाने को सबके लिए खोल दिया था और कहा जाति-पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि के होई. मध्यकालीन समाज में यह बहुत बड़ी घटना थी, शायद सबसे बड़ी. यहाँ हम आपको बता दें कि रामानंद ब्राह्मण थे. श्री रामानंद ने रामभक्ति के माध्यम से एक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। सामाजिक विषमताओं और बाहरी आडम्बरों में जकड़े समाज में पुनरुत्थान की ओर पहला कदम बढ़ाने वाले रामानंद थे। रामभक्ति के माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक समरसता तथा समन्वय की भावना पैदा करने का एक सफल प्रयास किया। श्री रामानंद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्री वैष्णवमताज भास्कर में प्रचलित ऊंच-नीच की भावना पर क्रूर प्रहार किया है।

मित्रों, तो रामानंद जी जैसे महान गुरु के महान शिष्य रैदास जी के बारे में जितना भी कहा जाए कम है. रामानंद के अधिकतर शिष्यों की तरह रैदास भी ईश्वर यानि आपने राम के निर्गुण रूप के उपासक थे वे कहते भी हैं हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति। रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥

मित्रों, उनकी भक्ति कितनी अटल थी इसके बारे में एक प्रसंग का बार-बार जिक्र किया जाता है. हुए यह कि गुरु रैदास का नाम बनारस शहर और आसपास के इलाकों में बहुत प्रसिद्ध हो चुका था। एक बार कुछ यात्री पंडित गंगाराम के साथ हरिद्वार में कुंभ के पर्व पर हर की पैड़ी में स्नान करने जा रहे थे। जब वे बनारस पहुँचे तो उनके मन में प्रेम उमड़ आया कि गुरु रैदास जी से भेंट करके फिर आगे को चलेंगे। वे गुरु रैदास जी का निवास स्थान पूछकर सीर गोवर्धनपुर में पहुँच गए। सभी यात्री गुरु रैदास के दर्शन करके बहुत प्रसन्‍न हुए। गुरु रैदास जी ने पूछा कि कहिए, आप कहाँ जा रहे हैं? पंडित गंगाराम जी ने बताया कि हम हरिद्वार में कुंभ स्नान के लिए जा रहे हैं। गुरु रैदास जी ने यात्रियों से कहा कि गंगाजी के लिए मेरी ओर से यह कसीरा ले जाओ और यह भेंट गंगाजी को तब देना जब वे हाथ निकालकर लें, नहीं तो इसे वैसे ही मत देना। गुरु रैदास जी की भेंट लेकर यात्रीगण हरिद्वार की तरफ रवाना हो गए। कुछ दिनों में यात्रीगण हरिद्वार पहुँच गए। उन्होंने गंगाजी के तट पर यात्रियों की भारी भीड़ देखी। गंगा में स्नान करने के बाद पंडित गंगाराम ने कहा, “हे माता गंगाजी, आपके लिए एक कसीरा भेंट के रूप में रैदास ने भेजी है। माता, अपना हाथ बाहर निकालें और इस भेंट को स्वीकार करें।” यह सुनते ही गंगाजी प्रकट हो गई और हाथ बढ़ाकर उन्होंने कसीरा ले लिया। गंगाजी ने अपने हाथ का एक हीरे जड़ित कंगन गुरु रैदास जी के लिए भेंट किया और गंगाराम जी से कहा कि मेरी यह भेंट रैदास को पहुँचा देना। ले कंगन अति हर्ष युत, देखत सब विसमाद। ऐसे न कबहुं भयो, गंगा को प्रसादि॥ गंगाराम सहित सभी यात्री बहुत हैरान हुए कि इस प्रकार आज तक किसी को गंगाजी ने भेंट नहीं दी थी। गंगाजी के दर्शन करके और स्नान करके पंडित गंगाराम जी वापस अपने घर पहुँच गया। गंगाराम जी ने अपनी पत्नी को प्रत्यक्ष दर्शन की सारी कथा सुनाई और गंगाजी का दिया हुआ कंगन अपनी पत्नी को रखने के लिए दे दिया। कुछ दिनों के बाद पंडित गंगाराम जी की पत्नी ने कहा कि इस कंगन को बाजार में बेच दिया जाए। यह बड़ी कीमत में बिक जाएगा। पैसे लेकर अपना जीवन मजे से गुजारेंगे। हमें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहेगी। जब पंडित गंगाराम वह कंगन बाजार में बेचने के लिए गया तो कंगन की जितनी कीमत थी, उसकी कीमत के बराबर किसी के पास धन नहीं था। जो भी सर्राफ कंगन को देखता था, वह हैरान हो जाता था और कहता था कि ऐसा कंगन हमने पहले कभी नहीं देखा। तब कुटवारै सुध दई वाकै हाट बिकाए। भुखन कंगन हाथ को बेचत जन इक आए॥ इस बात की खबर सिपाही के पास पहुँच गई कि एक आदमी बहुमूल्य कंगन बेचने की कोशिश कर रहा है। सिपाही गंगाराम जी को पकड़कर हाकिम के पास ले गए। हाकिम के पूछनेपर गंगाराम जी ने सारी कथा कह सुनाई कि यह कंगन गंगा माता के हाथ का है, जिसे गंगा माता ने गुरु रैदास जी को पहुँचाने के लिए दिया था। सारी बातें सुनकर हाकिम चकित रह गया। हाकिम ने कहा कि गुरु रैदास जी को यहाँ बुलाया जाए और उनकी राय ली जाए, तब गुरु रविदास जी को सादर सभा में बुलाकर कंगन के बारे में पूछा गया। गुरु रैदास जी ने कहा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। अभी एक बरतन में गंगा जल डालकर और कंगन उसमें डालकर ऊपर से कपड़ा देकर ढक दें। मन चंगा तो कठौती में गंगा। गंगाजी इस बात का फैसला कर देंगी। जैसा उन्होंने कहा, सारी सामग्री उसी ढंग से तैयार कर दी गई। तब गुरु रैदास जी ने गंगाजी को निर्णय करने के लिए कहा। जब कपड़ा बरतन से हटाया गया तो दो कंगन नजर आए। हाकिम और बाकी लोग यह देखकर बहुत प्रसन्‍न हुए। गुरु रैदास जी ने दोनों कंगन गंगाराम जी को दे दिए।

मित्रों, ऐसे थे हमारे संत रैदास जी. रैदास जी ने आजीवन सहज भक्ति की और सहज भक्ति का उपदेश भी दिया. उनको न तो मंदिर की जरुरत थी न ही देव प्रतिमाओं की क्योंकि उनके लिए तो उनके राम चन्दन थे और वे पानी थे जिसकी सुगंधी उनके अंग-अंग से आती थी. रैदास जी ऐसा समाज चाहते थे जिसमें कोई भूख से न मरे और सारे लोग मिलजुलकर प्रेमपूर्वक निवास करें. ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न. छोट बड़ों सब सम वसै, रैदास रहे प्रसन्न उनका व्यक्तित्व इतना महान था कि मेवाड़ की महारानी और महाराणा प्रताप की चाची मीराबाई ने उनको गुरु स्वीकार करते हुए उनसे ही भक्ति की दीक्षा ली. मीरा कहती है गुरु मिलिआ संत गुरु रैदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी.

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