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ब्रह्मा जी के मानस पुत्र : महर्षि अंगिरा Maharishi Angira

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र : महर्षि अंगिरा Maharishi Angira

पुराणों में बताया गया है कि महर्षि अंगिरा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं तथा ये गुणों में ब्रह्मा जी के ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ, विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतान्तर से श्रद्धा) थीं, जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ।

इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गये और कहने लगे- ‘आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़ की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।’ तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। महर्षि अंगिरा की विशेष महिमा है। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनकी ‘अंगिरा-स्मृति’ में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है।

सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। विद्वानों का यह अभिमत है कि महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं। जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।

ऋग्वेद का नवम मण्डल जो 114 सूक्तों में निबद्ध हैं, ‘पवमान-मण्डल’ के नाम से विख्यात है। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है।

कथा

अंगिरा ऋषि का शिष्य उदयन बड़ा प्रतिभाशाली था। वह सदैव यही चाहता था कि पहले उसे ही प्रतिभा के प्रदर्शन का मौका मिले या लोग सिर्फ उसी का प्रदर्शन देखते रहें। इसलिए वह सहयोगियों से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास करता था। अंगिरा ऋषि ने उदयन की इस वृत्ति को पहचानकर सोचा कि यह प्रशंसा पाने की लालसा है। प्रशंसा पाकर इसके भीतर अहंकार का जन्म होगा। यह वृत्ति इसे ले डूबेगी। अतः उसे समय रहते ही समझाना होगा।

सर्दी के दिन थे। अंगिरा ऋषि अपने शिष्यों के साथ सत्संग कर रहे थे। बीच में रखी अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। अचानक वे बोले, ‘कैसी सुंदर अंगीठी दहक रही है। इसका श्रेय क्या अंगीठी में दहक रहे कोयलों का है?’ उदयन के साथ अन्य शिष्यों ने भी हामी भरी। फिर अंगिरा ऋषि ने एक बड़े चमकदार अंगारे की ओर इशारा करके कहा, ‘देखो, यह कोयला सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। मैं बूढ़ा हूं, अतः ऐसे तेजस्वी अंगारे का लाभ निकट से लूंगा।’ उदयन ने एक चिमटे से पकड़कर वह अंगारा ऋषि के समीप रख दिया। फिर सब लोग पहले की तरह बातचीत करने लगे।

थोड़ी ही देर में वह अंगारा मुरझा गया। उस पर राख की परत जम गई। वह बुझा हुआ कोयला भर रह गया। इस पर अंगिरा ऋषि बोले, ‘शिष्यो, देखा तुमने? तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, परंतु इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में वह अंत तक तेजस्वी बना रहता और सबके बाद तक गर्मी देता। लेकिन अब इसमें वह तेज नहीं रहा कि हम इसका कोई लाभ उठा सकें।’ उदयन के साथ-साथ दूसरे शिष्य भी समझ गए कि ऋषि परिवार की परंपरा वह अंगीठी है जिसमें प्रतिभाएं संयुक्त रूप से आगे बढ़ती हैं। व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न तो टिकता है और न ही फलित होता है।

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