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हिंदू सनातन रक्षक योद्धा : आदिगुरु शंकराचार्य  Aadiguru Shankracharya

हिंदू सनातन रक्षक योद्धा : आदिगुरु शंकराचार्य  Aadiguru Shankracharya

मित्रों। नमस्कार आज हम जिन के विषय में आपको बताने जा रहे हैं, उनको आदि गुरु भी कहा जाता है और अगर देखा जाए तो हिंदू सनातन धर्म की रक्षा करने में इनका अत्यधिक योगदान तब रहा जब हमारे देश में बौद्ध धर्म का प्रचार बहुत ज्यादा बढ़ गया था। इसी के साथ विदेशी आक्रमणों के प्रभाव से भी बहुत समस्या आ रही थी। तो चलिए ! आज आदि शंकराचार्य जी के जीवन पर और उनकी शिक्षाओं पर इस लेख के माध्यम से प्रकाश डालते हैं।

आदि शंकर जी यह भारत के महान दार्शनिक और धर्म प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने ही अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया है। आज भी लोग इस पर पीएचडी करते हैं। भगवत गीता हो, उपनिषदों वेदांत हो, इन सभी पर इन्होंने टीका।

इन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधान कारण वाद और मीमांसा दर्शन का ज्ञान कर्म समुच्चय बात का खंडन किया था। इनके संबंध में जो जन्म बताया जाता है अलग-अलग बातें कही जाती कहीं इन्हें 2500 वर्ष पूर्व बताया जाता है। इसी से और कहीं इन्हें 600 या 500 इसवी में ही बताया जाता है। सभी लोगों की अलग-अलग राय है। लेकिन जन्म से अधिक महत्वपूर्ण कारण होता है। इन्होंने ही भारत के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की। जो कि आज भी यहां पर सन्यासी शंकराचार्य रहते हैं। यह स्थान है ज्योतिष पीठ, बद्रिकाश्रम, श्रंगिरी पीठ। द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ।

भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले इन्होंने बहुत ही गहराई से तत्व का विवेचन इन्होंने किया था। इनके जो उपदेश है उसके अनुसार आत्मा और परमात्मा की एकरूपता है। एक परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य जी को भगवान शिव का ही अवतार बताया गया है। इन्होंने  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् इत्यादि पर भाषण लिखे हैं।

ईश्वर को संबोधित किया और उसका प्रचार और प्रसार पूरे भारतवर्ष में किया। अगर कहा जाए कि केवल एक मात्र यही हैं जिन्होंने हिंदू सनातन धर्म का प्रचार पूरे देश में किया था जब बौद्ध धर्म यहां बहुत प्रबल हो चुका था। और इनके आधार पर ही वास्तव में फिर से हिंदू सनातन धर्म वापस आ पाया था। इनके ही कठिन परिश्रम के कारण जनता वापस से सनातन हिंदू धर्म की ओर अग्रसर हो पाई थी।

इनके संबंध में बहुत सारी बातें हमें मिलती हैं। और? इनके जो यात्रा है उसका भी विशेष रूप से महत्व हमको देखने को मिलता है। शंकराचार्य जी ज्ञान का केंद्र माने जाते हैं।

कहते हैं कि केरल के एक छोटे से गांव कलादि में इनका जन्म हुआ था। शंकराचार्य जी के जन्म की एक छोटी सी कथा प्राप्त होती है। शंकराचार्य के माता और पिता बहुत समय तक निसंतान रहे थे। कड़ी तपस्या के बाद माता अयंबा को स्वप्न में भगवान शिव ने कहा कि उनके पहले पुत्र के रूप में स्वयं ही अवतरित होंगे, परंतु उनकी आयु बहुत ही कम होगी और देव लोक की ओर गमन कर जाएंगे। कहते हैं शंकराचार्य जी जन्म से ही बिल्कुल अलग के स्वभाव से शांत और गंभीर थे। इतनी तीव्र बुद्धि थी कि जो भी बात एक बार सुन लेते या पढ़ते उसे एक बार में ही समझ लेते थे। शंकराचार्य जी ने स्थानीय गुरुकुल से सभी वेदों और लगभग 6 अंगो में महारत हासिल की थी। इनके पास अथाह ज्ञान हो गया। कहते हैं मात्र 32 वर्ष में ही यह स्वर्ग सिधार गए और 32 वर्ष में ही संसार के समस्त कार्य इन्होंने कर डाले। इसमें इनकी जीवन की यात्रा और पूरे सनातन धर्म का प्रचार और प्रसार शामिल है।

चार मठों की स्थापना की ताकि देश को पूरा एक साथ जोड़ा जा सके।

वेदांत मठ जिसे हम ज्ञान मठ भी कहते हैं जो सबसे पहला मठ था। इसे इन्होंने श्रृंगेरी रामेश्वर अर्थात दक्षिण भारत में स्थापित किया था। दूसरा गोवर्धन मठ जो दूसरा मठ था जगन्नाथपुरी अर्थात पूर्वी भारत में इन्होंने स्थापित किया। शारदा मठ जिसको हम कलिका मठ भी कहते हैं जो कि तीसरा मठ  द्वारिकाधीश अर्थात पश्चिम भारत में स्थापित किया गया और ज्योति पीठ मठ जिसे हम बद्रिकाश्रम भी कहते हैं क्योंकि चौथा और अंतिम था। बद्रीनाथ अर्थात उत्तर भारत में स्थापित किया। इससे भारत पर पूरा इन्होंने एक स्थाई स्वरूप साम्राज्य और धर्म साम्राज्य की स्थापना कर हिंदुओं का परचम लहराया था।

शंकराचार्य जी!

मूल रूप से तत्वदर्शी थे उन्होंने! पूरे पूरे रहस्य को समझा।

जीवन में। बहुत सारे शास्त्रार्थ भी किए। उन्होंने लगभग सभी बौद्धों को हराकर बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार को भारत में रोक दिया था। आदि शंकराचार्य ने बहुत धर्म सहित विभिन्न धार्मिक बाद विवादों के माध्यम से और शास्त्रार्थ करके उन्हें हराया। और उनकी सब व्याख्या को पलट दिया था। वे केरल से लंबी पदयात्रा करते नर्मदा नदी के तट पर ओंकारनाथ पहुंचे। वहां गुरु गोविंद पाद से योग शिक्षा और अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया। 3 वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए निकल पड़े।

कहते हैं। कि एक बार उनके राह में चांडाल आ गया। उन्होंने! क्रोधित होकर चांडाल को वहां से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला, हे मुनि! आप शरीर में रहने वाले परमात्मा की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि आप एक ब्राह्मण हैं और मैं एक शूद्र हूं।

चांडाल की बातों को वे नहीं समझ पाए और उन्होंने कहा कि मैं अभी अभी स्नान के लिए जा रहा था तुम! इस प्रकार मुझे स्पर्श नहीं हो सकते हो?

शंकराचार्य जी सभी को ज्ञान में परास्त कर सकते थे। तब? शंकराचार्य जी ने कहा तूने मुझे छुआ है तुझको मैं नरक प्रदान करूंगा। तुझे नर्क में दंडित किया जाएगा। तब वह आदमी हंसकर कहने लगा। यह सब तो भ्रम है। ऐसा लगता है कि केवल नरक ही है तभी आप ऐसा कह रहे हैं। उस आदमी ने कहा, नहाने जाने से पहले तुम ही मेरे सवालों का जवाब देना ही होगा। अगर तुमने मुझे जवाब नहीं दिया तो हर बार जब भी तुम नहाने जाओगे तो मैं तुम्हें छूलूंगा।

तब शंकराचार्य जी ने कहा, मुझसे कुछ भी पूछो। तो उस व्यक्ति ने कहा, मेरा पहला सवाल है। क्या मेरा शरीर मायावी है और क्या आपका शरीर भी है और अगर? दोनों एक दूसरे को छू ले तो क्या इसमें समस्या है, आप एक और स्नान क्यों करने जा रहे हैं। आप जो उपदेश दे रहे हैं, उसका अभ्यास नहीं कर रहे हैं। एक भ्रामक दुनिया में अछूत और ब्राह्मण के बीच अंतर कैसे हो सकता है? शुद्ध और अशुद्ध जब दोनों ही मिथ्या है जबकि दोनों उसी पदार्थ से बने जिससे स्वप्न बना है। यह बवाल किस बात का है? बड़े-बड़े विद्वानों को जीतते आ रहे शंकराचार्य सीधे-साधे आदमी का जवाब नहीं दे पाए। वह कहते कि वह भ्रम है। तो किस बात पर आप क्रोधित हो रहे हैं अगर संसार भ्रम है? और अगर शरीर भी भ्रम है और वह समाप्त हो जाने वाला है। सभी का एक जैसा ही है तो दोनों में अंतर क्या है, ठीक है। अगर सब कुछ वास्तविक ही है तो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर दीजिए। मैं इस प्रश्न से आपके पूरे दर्शनशास्त्र को ही समाप्त कर दूंगा।

शुद्ध अ शुद्ध कहां है, आप बताइए मेरे शरीर में है या मेरी आत्मा में है? मैंने आपको यह घोषणा करते सुना है कि आत्मा बिल्कुल और हमेशा शुद्ध है। इसे अशुद्ध करने का कोई उपाय है कि नहीं इसे तो भेदा तक नहीं जा सकता।

ऐसे में? मेरी आत्मा ने आपकी आत्मा को कैसे अशुद्ध कर दिया है जिसकी वजह से आपको नहाने जाना पड़ेगा? शंकराचार्य जी ने वास्तविकता समझने पर अपनी हार स्वीकार करते हुए कहा।

कि यह जगत मिथ्या है। तो फिर? मैं किस भ्रम में जी रहा हूं?

तब उन्होंने कहा मंदिर जाना ईश्वर से प्रार्थना करना। कि यह जो स्वप्न है इसे भी शौक नहीं माना जाए। यह सारी क्रियाएं जीवन में प्रत्येक कर्म सब कुछ भ्रम है। क्योंकि सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है।

शंकराचार्य जी ने कहा, आप कौन हैं और मेरे ज्ञान को भी भस्म कर देने वाले आप कौन हैं? तब भगवान शिव साक्षात रूप में वहां पर प्रकट हो गए। उन्होंने कहा शंकर इस जगत में ना तो ऊंच-नीच है ना जातिवाद ना ही कोई भूत है।

बनाई गई मायाजाल में तुम सब क्यों उलझते हो। यहां कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। अगर तुम भी ऐसा ही करने और सोचने लगे तो तुम्हें और साधारण मनुष्यों में क्या भेद रह जाएगा। यह सभी तो नर्क वादी स्वयं होने वाले करते हैं। ईश्वर किसी में भेद नहीं करता। इसलिए जाति प्रथा और ऊंच-नीच की भावना से ऊपर उठकर सभी का कल्याण करो। आदि शंकराचार्य जी ने। ब्रह्मसूत्र भाष्य आध्यात्मिक रचनाएं जगत में लिखें।

उन्होंने आत्मा की एकरूपता पर बल दिया।

भगवान आदि शंकराचार्य इसी प्रकार।

कई स्थानों से होते हुए आचार्य मिश्र के यहां पहुंचे कहते हैं। कि उनके पास जो फालतू मैना थी वह तक वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी।

आचार्य मिश्र को कोई भी शास्त्रार्थ में नहीं हरा सकता था। तब शंकरजी उनके घर गए। उन्होंने शास्त्रार्थ किया और उन्हें हरा दिया। पति को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोली महात्मा आपने अभी आधे अंग को ही जीता है। अगर आप मुझे पराजित कर पाए तभी आप विजई कहला सकते हैं क्योंकि? आचार्य मंडन मिश्र जी! गृहस्थ आश्रम में है और ग्रहस्थ का मतलब पति और पत्नी दोनों होते हैं। मिश्रा जी की पत्नी भारतीय कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारंभ कर दिए, किंतु आचार्य शंकर तो बाल ब्रह्मचारी थे इसलिए काम और वासना संबंधी प्रश्नों के उत्तर कहां से दे पाते?

तब उन्होंने देवी भारती से कुछ दिनों का समय मांगा और तब उन्होंने पहली बार परकाया प्रवेश विधि सिद्धि का प्रयोग किया। इसके माध्यम से इन्होंने दूसरे शरीर में जाकर कामशास्त्र सीखा।

और तब जाकर उन्होंने भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया।

तो दूसरे के शरीर में जाने की इस विद्या को परकाया प्रवेश कहते हैं। यानी दूसरे के शरीर या काया के अंदर स्वयं अपनी आत्मा को भेज सकना और उसका सारा ज्ञान प्राप्त कर सकना।

कहते हैं एक बार वह ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अत्यंत ही सकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप कर रही थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की। लेकिन स्त्री उसे अनसुना कर रोती ही रहे। तब स्वयं आचार्य ने उससे कहा कि शव हटा ले उसका आग्रह सुनकर स्त्री कहने लगी। सन्यासी आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं।

आप ही स्वयं शव को यहां से हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते? यह सुनकर आचार्य बोले, हे देवी आप शोक में है इसलिए भूल गई हैं कि शव में स्वयं को हटाने की सामर्थ्य नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया। महात्मा आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष जगत व्याप्त करता है। शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हटाया जा सकता?

स्त्री का ऐसा गंभीर और ज्ञान में रहस्य पूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं पर बैठ गये। उन्होंने समाधि लगा ली। और अंतरचक्षु में देखा कि सर्वत्र व्याप्त आदिशक्ति पराशक्ति महामाया ही लीला विलाप कर रही हैं, अर्थात वहीं रो रहे हैं।

आनंद से भर गए मुख से उन्होंने मातृ वंदना की और उन्होंने स्त्रोत की रचना की।

माता के माध्यम से उन्हें पता चला कि ब्रह्म अर्थात् परमात्मा और उसकी शक्ति अभिन्न है। बिना शक्ति के ब्रह्म का कोई अस्तित्व नहीं है इसलिए बिना शक्ति के ब्रह्म उपासना का भी कोई आधार नहीं है। यह सारा संसार को चलाने वाली है और ब्रम्ह की स्थिति तक पहुंचाना और ब्रह्ममय बना देना। यह सारे कार्य ही आद्यशक्ति यही पराशक्ति करती है।

देवी के महत्त्व को समझते हुए। उन्होंने ही माता त्रिपुरा सुंदरी की संक्षिप्त वर्णन और उनकी आराधना का ज्ञान जगत को देने के लिए ग्रंथों की रचना भी की थी।

अब! आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धा द्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद, निर्गुण, ब्रह्म ज्ञान सारा ज्ञान एक ही जगह पूर्ण रूप से उपस्थित थे।

उन्होंने कहा था ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या।

परमात्मा ही सत्य है और यह सारा जगत माया है इसलिए मिथ्या माननीय योग्य है। इन्होंने ही पूरे हिंदू धर्म को फिर से जीवित किया जो कि अत्यधिक विचार वादी होने लगा था।

जो देखता जो सोचता उसे ही सत्य मानता। लेकिन जगत मिथ्या है क्योंकि किया गया कोई भी कर्म आखिरकार समाप्त ही हो जाता है मृत्यु के साथ।

इसीलिए उन्होंने! जगत को मिथ्या ही माना है।

परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है तार्किक नही जबकि तर्क वादी बौद्ध मत। हमेशा जैसा किया वैसा प्राप्त किया के आधार पर कार्य कारण के सिद्धांत पर चलने वाला था। लेकिन उन्होंने समझाया कि आप कुछ भी करें। सब कुछ एक दिन समाप्त स्वयं हो जाता है। इसीलिए ब्रह्म सत्य है और अंततोगत्वा जगत मिथ्या है क्योंकि पूर्णता समाप्त होने वाला है।

उन्होंने यह भी बताया कि? ब्रह्म और जीव मूलता एक ही तत्व है।

केवल अपने अज्ञान से और स्वयं को शरीर समझने मात्र से ही वह अंतर करने लगता है और यही अंतर अज्ञान का कारण और अविद्या को पैदा करने वाला है।

किसी भी चीज की मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है।

जीव की मुक्ति केवल पराशक्ति में लीन होने पर ही होती है तभी वह मुक्त हो पाता है।

उनके कारण ही।

विभिन्न प्रकार के गैर सनातनी धर्म का प्रचार प्रसार रुक गया। इनके दर्शन इतना मजबूत था कि उसके बाद आज तक! तकरीबन जितने भी सदियां और शताब्दियाँ निकल गई हिंदू धर्म को विचलित नहीं किया जा सका। क्योंकि इतना ज्यादा गहरा आध्यात्मिक ज्ञान इन्होंने दिया। जिसके कारण किसी अन्य धर्म की शिक्षाओं, उनके प्रभाव और उनके जो भी तर्क थे वह सभी समाप्त हो जाते थे। शायद यही वजह है कि आज तक हिंदू धर्म जीवित है।

इसलिए आदि गुरु शंकराचार्य के रूप में भगवान शिव ही सनातन हिंदू धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। यह वास्तविकता है और इसी कारण आज तक हमारा धर्म। सारे आक्रमणकारियों हो या फिर किसी भी प्रकार से समाज को बांटने की प्रक्रिया हो लोगों को अलग करने का तरीका हो। किसी का भी प्रभाव कार्य नहीं किया। अपने कार्य को केवल 32 वर्ष में समाप्त करके वह फिर से भगवान शिव में जाकर विलीन हो गए।

यह सत्य है आदि गुरु शंकराचार्य जी का उनकी जीवनी का जिसमें उन्होंने धर्म के लिए विशेष रूप से कार्य किया और इसी प्रचार-प्रसार के कारण सनातन हिंदू धर्म की रक्षा हो पाई।

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