नाम : गोस्वामी तुलसीदास।
जन्म : सवंत 1589 राजापुर ( उत्तर प्रदेश )।
पिता : आत्माराम।
माता : हुलसी।
पत्नी : रत्नावली ।
महान कवि तुलसीदास की प्रतिभा-किरणों से न केवल हिन्दू समाज और भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हो रहा है । बड़ा अफसोस है कि उसी कवि का जन्म-काल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ है। अब तक प्राप्त शोध-निष्कर्ष भी हमें निश्चितता प्रदान करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। मूलगोसाईं-चरित के तथ्यों के आधार पर डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल और श्यामसुंदर दास तथा किसी जनश्रुति के आधार पर “मानसमयंक’ – कार भी 1554 का ही समर्थन करते हैं।
ऐसा कहा जाता है के एक बार तुलसीदास को काशी में रहते हुए अपनी पत्नी की याद आई तब व्याकुलता वश वह अपने गुरु की आज्ञा ले कर अपने गाँव राजापुर लौटे थे। और वहीं पास अपनी पत्नी के माइके यमुना नदी तैर कर पार पहोंचे थे। अपने ससुराल जा कर वह सीधे रात को रत्नावली के कक्ष में पहोंचे। और उन्हे साथ चलने को कहा।
अंधेरी तूफानी रात में अपने पति को इस तरह आया देख कर रत्नावली भय और लज्जा से चकित हो गयी। और उन्होने तुलसीदास को तुरंत वापिस जाने को कहा। तुलसीदास के अधिक आग्रह करने पर रत्नावली ने उन्हे दोहे के माध्यम से शिक्षा दी थी और कहा जाता है के इसी वजह से “तुलसीराम” तुलसीदास बने।
तुलसीदास की कविताओं का एक ही विषय है- मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ति। उन्होंने अनेक रचनाएं लिखीं। उनकी प्रसिद्द रचनाएं हैं- ‘रामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘रामलला नहछू’, ‘जानकी मंगल’, ‘पारवती मंगल’, ‘गीतावली’, ‘बरवै रामायण’, ‘दोहावली’, ‘कवितावली’, ‘हनुमान बाहुक’ और ‘वैराग्य संदीपनी’।
तुलसीदास को ब्रज तथा अवधी दोनों पर समान अधिकार प्राप्त है। ‘रामचरितमानस’ उनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ में राम के सम्पूर्ण जीवन की झांकी प्रस्तुत की है। ‘विनयपत्रिका’ में उन्होंने अपनी भक्ति भावना को सुमधुर गीतों में प्रस्तुत किया है।
गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में ‘रामायण’ लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है।
माता-पिता :
तुलसीदास के माता पिता के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं है। प्राप्त सामग्रियों और प्रमाणों के अनुसार उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। किन्तु भविष्यपुराण में उनके पिता का नाम श्रीधर बताया गया है। रहीम के दोहे के आधार पर माता का नाम हुलसी बताया जाता है। अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरों शूकरक्षेत्र भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गाँव है।
वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् १५५४ के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे।
जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये।
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शुक्ला पञ्चमी को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये।
इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। पिता का नाम पंडित आत्माराम और माता का नाम हुलसी था । इनका बचपन का नाम ‘रामबोला’ था। वंही आश्रम में इनकी शिक्षा होती रही, बाद में इन्होने काशी में शिक्षा ग्रहण की। फिर इनका विवाह रत्नावली से हुआ । वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे ।
इसी कारण तुलसीदास जी एक दिन उसके पीछे ससुराल जा पंहुचे। उनको देखकर रत्नावली ने कहा कि जितना प्यार आप इस हाड़-मांस के शरीर से करते हो, इतना प्यार श्री राम से करते तो आपका बेडा पार हो जाता । पत्नी की इन बातों ने जादू सा असर किया और वो घर छोड़कर प्रभु श्रीराम की खोज में तीर्थ स्थानों पर घूमने लगे । एक दिन चित्रकूट में उनको भगवान के दर्शन हो गये ।
गुरु :
तुलसीदास के गुरु के रुप में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार राघवानंद, विलसन के अनुसार जगन्नाथ दास, सोरों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार नरसिंह चौधरी तथा ग्रियर्सन एवं अंतर्साक्ष्य के अनुसार नरहरि तुलसीदास के गुरु थे। राघवनंद के एवं जगन्नाथ दास गुरु होने की असंभवता सिद्ध हो चुकी है। वैष्णव संप्रदाय की किसी उपलब्ध सूची के आधार पर ग्रियर्सन द्वारा दी गई सूची में, जिसका उल्लेख राघवनंद तुलसीदास से आठ पीढ़ी पहले ही पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में राघवानंद को तुलसीदास का गुरु नहीं माना जा सकता।
कार्य :
रामचरितमानस, रामलाल नहछू, बरवाई रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामाज्ञा प्रश्न। कृष्णा गीतावली, गीतावली, साहित्य रत्न, दोहावली, वैराग्य संदीपनी और विनय पत्रिका। इन 12 रचनाओ के अलावा तुलसीदास द्वारा रचित चार और रचनाये काफी प्रसिद्ध है जिनमे मुख्य रूप से हनुमान चालीसा, हनुमान अष्टक, हनुमान बहुक और तुलसी सतसाई शामिल है।
भारत में समय-समय पर धर्म, विज्ञान एवं साहित्य के क्षेत्र में महान विद्वानों और साहित्यकारों ने जन्म लिया है। तुलसीदास उन्ही में से एक थे। आज तक हिंदी साहित्य जगत में उनकी जोड़ का दूसरा कवी नही हुआ जो पुरे भारत में अपने साहित्य से इतना प्रभाव छोड़ पाया हो। तुलसीदास का जीवन हिंदी साहित्य में सूरज के समान ही रहा है। जिनकी किरणों ने केवल हिन्दू समाज ही नही बल्कि पुरे विश्व को प्रकाशित किया है।
राजापुर गाँव में कुछ समय रहने के उपरांत तुलसीदास फिर से काशी लौटे थे। वहाँ भी राम कथा सुनाने लगे। ऐसा कहा जाता है के एक बार एक प्रेत के माध्यम से तुलसीदास को श्री हनुमान का पता मिला। और तुलसीदास ने हनुमान जी से श्री राम के दर्शन पाने की अभिलाषा की थी। हनुमान जी की प्रेरणा से तुलसीदास को चित्रकूट में श्री राम के साक्षात्कार हुए थे। श्री राम ने तुलसीदास को दो बार दर्शन दिये थे। और दूसरी बार जब श्री राम तुलसीदास के सामने आए तब श्री राम ने अपने और तुलसी दास के मुख मण्डल पर चन्दन तिलक लगाया था और फिर प्रभु श्री राम अदृश्यमान हो गए थे।
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये।
तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
1. आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
2. कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
रचनाएँ :
• केशव,कहि न जाइ / विनय पत्रिका ।
• सुन मन मूढ / विनय पत्रिका ।
• हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों
• लाज न आवत दास कहावत ।
• मैं केहि कहौ बिपति अति भारी ।
• मेरे रावरिये गति रघुपति है बलि जाउँ ।
• माधव, मोह-पास क्यों छूटै ।
• देव! दूसरो कौन दीनको दयालु ।
• हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै ।
• यह बिनती रहुबीर गुसाईं ।
• और काहि माँगिये, को मागिबो निवारै ।
• मैं हरि, पतित पावन सुने ।
• मेरो मन हरिजू! हठ न तजै ।
• तऊ न मेरे अघ अवगुन गनिहैं ।
• माधव! मो समान जग माहीं
• ते नर नरकरूप जीवत जग ।
• मन माधवको नेकु निहारहि ।
• जो मन लागै रामचरन अस ।
• भज मन रामचरन सुखदाई ।
• अब लौं नसानी, अब न नसैहों ।
• मन पछितैहै अवसर बीते।
मृत्यु :
पिता का नाम पंडित आत्माराम और माता का नाम हुलसी था । इनका बचपन का नाम ‘रामबोला’ था। वंही आश्रम में इनकी शिक्षा होती रही, बाद में इन्होने काशी में शिक्षा ग्रहण की। फिर इनका विवाह रत्नावली से हुआ । वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे । इसी कारण तुलसीदास जी एक दिन उसके पीछे ससुराल जा पंहुचे। उनको देखकर रत्नावली ने कहा कि जितना प्यार आप इस हाड़-मांस के शरीर से करते हो, इतना प्यार श्री राम से करते तो आपका बेडा पार हो जाता ।
पत्नी की इन बातों ने जादू सा असर किया और वो घर छोड़कर प्रभु श्रीराम की खोज में तीर्थ स्थानों पर घूमने लगे । एक दिन चित्रकूट में उनको भगवान के दर्शन हो गये । तुलसीदास की मृत्यु सवंत 1680 में श्रावण माह कृष्ण तृतीय शनिवार के दिन हुई थी। अपने अंतिम समय में तुलसीदास ने राम नाम स्मरण किया था। और ऐसा भी कहा जाता है की तुलसी दास ने अपने मृत्यु से पहले अंतिम कृति विनय-पत्रिका लिखी थी। जिस पर स्वयं प्रभु श्री राम ने हस्ताक्षर किए थे। तुलसीदास का जीवन काल 126 वर्ष का रहा था।